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मज़हब क्या होता है
दो पल को मस्जिद की
नीम में ज़रा सुस्ता लूं
सेवई लज़ीज़ बनी है अज़हर के वहां
ज़रा प्रसाद समझ के पा लूं
रेहाना भाई मानती है
उससे इक धागा बंधवा लूं
चाची का बुर्का फटा है
नुक्कड़ से ज़रा पेबंद लगवा लूं
उर्स के रोज़ दाता कम्बल शाह की याद में दिल क्यूँ रोता है
ये मज़हब क्या होता है.
तख्त पे मत्था टेका है
देखी हैं अमृतसर की शामें
जी करता है गुरुवाणी सुनके
दिल बस उनकी ही माने
ब्लू स्टार हुआ ते हुआ
हरमंदिर अब भी आबाद है
लंगर विच कढ़ी के क्या कहने
रोटी भी बड़ी स्वाद है
इन यादों को समेटे बैठा हूँ, दिल फिर जाने को होता है
ये मज़हब क्या होता है.
याद है क्रिसमस का केक
डेविड फुआ खुद बना कर लाती थीं
दो तीन दिन की प्रक्टिस करवा के
कैरोल हम सब से गवाती थीं
अब भी गुड-फ्रीदय के रोज़
चर्च होके आता हूँ
कैथेड्रल में जी चाहे लगे न लगे पर
एक आध मोमबत्ती लगा के आता हूँ
सन्डे को अब भी बाइबल की कहानियां का वेट क्यूँ होता है
ये मज़हब क्या होता है.
मथुरा में लूटी हैं
जमके कान्हा की मस्ती
बांके बिहारी की छवि देख कर
मन है झूमता और आँखें रोती
पापा के संग की है कीर्तन ठिठोली
हारमोनियम पे दी है संगत
देवघर के पंडा जी बैठे
तो खा गए पंगत पे पंगत
दादी हमारी सुनें गुरु वंदना, सुनाये उनका पोता है
ये मज़हब क्या होता है.
- असीम रंजन