Friday, March 27, 2009

सुबह

आँखें मलते उठे सुबह कुल्ला किया
घड़ी ने सात का घंटा बजाया, याद आया
भाई सोमवार है, दफ्तर जल्दी है पहुंचना
उनींदी आँखें खुलो, दस्तक है सुबह की |

क्या सपना था उफ़ चाँद सितारों का
उडे थे हम गुब्बारों के संग दूर कहीं
ब्रश करते करते अचानक यह ख्याल आया
ख्वाब यही दिखता है क्यूँ हर इतवार को |

पेपर उठाया पड़ा था चौखट से लगके
वही पुरानी ख़बर वही रोज के हमले
ज़िन्दगी गारत है किसी कौम की, लिखा था
जेबें ठनठनांई होंगी इन मातहतों की इसपे |

गोया बज गए हैं आठ, नहाना भी है बाकी
हजामत क्यूँ, आजकल तो ट्रेंड है
आईटी मुलाजिम है, जीना है मुहाल
बंदा कर्मठ है, देखो तो बाल बिखरे हैं |

चिवडा दूध पाया नाश्ता, पेट नही भरा
भागते हुए ठूसमठास की मुँह में भरकर
न जाने कहाँ रख दिया आई कार्ड परसों
लगे धुनने लौंड्री के कपड़े रूई मानो |

बूट कसीं, जेबें तानी लागाया गले में फंदा
बहरहाल तैयार है सिपाही फिर ज़ंग के लिए
सुबह का सपना तैर गया फिर आंखों पे
गुब्बारा देता हार्न, चलो मीटिंग है चाँद के साथ ||

जेठ

आयी आवाज़ खड-खड की
सूखी पत्तियां चली लहराती
जैसे किसी ने ट्रेन को दी हो सीटी
उफ़ यह जेठ की दुपहरी |

हवा गर्म है अंगीठी सरीखी
जैसे ख़ुद में आग समेटे
बाहर निकालो तोह चैन नहीं
अन्दर में मुआ फैन नहीं |

मोड़ पे बैठा है फ़कीर वोह
पोटली में ढूंढता है जाने क्या
झुंझलाता है बीच बीच में
पैसे होते तोह अमझोर पी लेता |

नल की टोंटी ख़ुद है प्यासी
क्या मैं पिउं क्या गिराऊँ
दो बार बच्ची आकर देख गयी
सुबह से पानी नही आया |

गलियां सूनी लोग हैं नदारद
पंछियों ने भी अपनी भली समझी
खिड़की पे खड़ी देखे है मुनिया
बाबू नही आए आटा लेकर |

गायें घुस आईं कुछ खेतों में
भाई वाह, यह मटर की फसल
रामू पड़ा रहा चारपाई पे अवश्
कौन डाले अपनी जान सांसत में |

शाम ढली कुछ मिटटी महकी
बच्चे दौडे कैद से छूटे
फिर किसी ने पतंग काटी हत्थे से
फिर एक दिन जीत मिली जेठ पर ||