Friday, March 27, 2009

जेठ

आयी आवाज़ खड-खड की
सूखी पत्तियां चली लहराती
जैसे किसी ने ट्रेन को दी हो सीटी
उफ़ यह जेठ की दुपहरी |

हवा गर्म है अंगीठी सरीखी
जैसे ख़ुद में आग समेटे
बाहर निकालो तोह चैन नहीं
अन्दर में मुआ फैन नहीं |

मोड़ पे बैठा है फ़कीर वोह
पोटली में ढूंढता है जाने क्या
झुंझलाता है बीच बीच में
पैसे होते तोह अमझोर पी लेता |

नल की टोंटी ख़ुद है प्यासी
क्या मैं पिउं क्या गिराऊँ
दो बार बच्ची आकर देख गयी
सुबह से पानी नही आया |

गलियां सूनी लोग हैं नदारद
पंछियों ने भी अपनी भली समझी
खिड़की पे खड़ी देखे है मुनिया
बाबू नही आए आटा लेकर |

गायें घुस आईं कुछ खेतों में
भाई वाह, यह मटर की फसल
रामू पड़ा रहा चारपाई पे अवश्
कौन डाले अपनी जान सांसत में |

शाम ढली कुछ मिटटी महकी
बच्चे दौडे कैद से छूटे
फिर किसी ने पतंग काटी हत्थे से
फिर एक दिन जीत मिली जेठ पर ||

No comments:

Post a Comment